है असर कुछ ऐसा आज की हवाओं में
यक़ीं नहीं कि सुकून मिले एक रूह को क़ब्र में
न परछाई का भरोसा न निगाहों का
गर साथ होगा तो बस अंदर का ख़ुदा उस आख़री सफ़र में
पर है अंदर ख़ुदा तो क्या बिसात रात की
कौन कहे कल अंदर का यकीं न बने सूरज गगन में
कौन कहे जो आज सैलाब बनके क़हर बरपा रहा है पानी
आज अश्क़ बन उमड़ा है
कल फूलों में ज़िन्दगी बनके न मुस्काएगा चमन में
कौन कहे जो सर्द हवाएँ आज मौत बाँट रहीं हैं
कल ज़िन्दगी की साँसें बनकर न महकेंगी बदन में
कौन कहे जो नक़ाब आज रुला रहा है
यकीं पर से यकी चुरा रहा है
कल किसी दोस्त का चेहरा बनकर न साथ आएगा ग़म में
This is something I had written in 2011 on iTimes
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